Braham Ved (Hindi Religious Bo
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ऐसा कुछ नहीं जिसे पहले किसी ने कहा नहीं। ऐसा कुछ नहीं जो किसी ने पहले सुना नहीं। ऐसा कुछ नहीं जो कभी किसी और ने देखा नहीं या अनुभव नहीं किया। दोहराये जाने पर भी नवीन जान पड़ने वाला ज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है, जो एक होकर भी अनेक तरह से समझा तथा समझाया जा सके। जिस एक विषय से अनेकों विषय उत्पन्न हो सकें यही ब्रह्मज्ञान है। एक विचार अनेकों विचारों को जन्म दे वही ज्ञान का सागर ब्रह्मज्ञान है। (1.9.8) ब्रह्मवेद
ब्रह्मज्ञान का प्रमुख आधार केवल ज्ञान नहीं अपितु वह प्रेरणा प्राप्त करना है जिससे ज्ञान पर चिंतन और अनुसरण करके शोध किया जाये। मात्र चिंतन अथवा मात्र अनुसरण दोनों से ही ज्ञान शून्य रहता है। शून्य ज्ञान वही है जिसका मनुष्य चिंतन व अनुसरण नहीं करता। (1.9.2) ब्रह्मवेद
अपनी ही मृत्यु से जन्म लेने वाला ब्रह्म बहुआयामी है। जन्म लेते ही वह सम और तम को धारण कर लेता हैं और उसके जीवनचक्र में सम और तम का पारस्परिक प्रतिरोध ही उसके जीवन काल का निर्धारण करता है। ब्रह्म की सीमाएं निश्चित हैं परन्तु वह स्वयं को घटा या बढ़ा सकता है। स्वयं से उत्पन्न सभी ब्रहमांशों को वह स्वयं के भीतर ही समाहित रखता है। ब्रह्म स्वयं की उत्पत्ति के समय से ही ब्रह्माण्ड की रचना प्रारम्भ कर देता है। यही ब्रह्म की जीवन यात्रा है। (1.4.1) ब्रह्मवेद
स्वयं मनुष्य का जीवन ही सत्य है, और मनुष्य का स्वयं के विषय में अध्ययन करना सत्य की खोज है । स्वयं की क्षमताओं का आंकलन करके अपने गुण-दोषों पर विचार करना चाहिए। अपने व्यवहार की पहचान करने वाला मनुष्य ही सत्य का खोजी है। (3.13.1) ब्रह्मवेद
ब्रह्मज्ञान का प्रमुख आधार केवल ज्ञान नहीं अपितु वह प्रेरणा प्राप्त करना है जिससे ज्ञान पर चिंतन और अनुसरण करके शोध किया जाये। मात्र चिंतन अथवा मात्र अनुसरण दोनों से ही ज्ञान शून्य रहता है। शून्य ज्ञान वही है जिसका मनुष्य चिंतन व अनुसरण नहीं करता। (1.9.2) ब्रह्मवेद
अपनी ही मृत्यु से जन्म लेने वाला ब्रह्म बहुआयामी है। जन्म लेते ही वह सम और तम को धारण कर लेता हैं और उसके जीवनचक्र में सम और तम का पारस्परिक प्रतिरोध ही उसके जीवन काल का निर्धारण करता है। ब्रह्म की सीमाएं निश्चित हैं परन्तु वह स्वयं को घटा या बढ़ा सकता है। स्वयं से उत्पन्न सभी ब्रहमांशों को वह स्वयं के भीतर ही समाहित रखता है। ब्रह्म स्वयं की उत्पत्ति के समय से ही ब्रह्माण्ड की रचना प्रारम्भ कर देता है। यही ब्रह्म की जीवन यात्रा है। (1.4.1) ब्रह्मवेद
स्वयं मनुष्य का जीवन ही सत्य है, और मनुष्य का स्वयं के विषय में अध्ययन करना सत्य की खोज है । स्वयं की क्षमताओं का आंकलन करके अपने गुण-दोषों पर विचार करना चाहिए। अपने व्यवहार की पहचान करने वाला मनुष्य ही सत्य का खोजी है। (3.13.1) ब्रह्मवेद
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